सुकदेव जब गुरू की खोज में निकले, तो उनके पिता ऋषि व्यास जी ने उन्हें राजा जनक को अपना गुरु बनाने की सलाह दी। सुखदेव जब जनक के राजमहल पहुंचे तो उन्होंने देखा कि महाराज जनक तो रत्नजडित सोने के सिंहासन पर विराजमान हैं। अनेक मंत्रीगण उनसे राज्य के सञ्चालन के बारे में सलाह-मशविरा कर रहे है, और अनेक दासिया महाराज की सेवा में रत हैं । यह दृश्य देखकर सुकदेव को बड़ा आश्चर्य हुआ। वो मन ही मन बडबडाने लगे “बड़ी विचित्र बात है की पिताश्री ने गुरु बनाने के लिए मुझे ऐसे व्यक्ति के पास भेजा जो भौतिक सुखों की इतनी आकांक्षा रखता है और जो भोग-विलास में लिप्त है ! ऐसा दुनियावी व्यक्ति कैसे मेरा गुरु बन सकता है ?”
किन्तु सत्यता तो ये थी की महाराज जनक, राजा होते हुए भी साधु थे। संसार में रहते हुए भी महाराज जनक सांसारिक मोह से परे थे। अध्यात्म के उच्चतम् शिखर पर होने की वजह से राजा जनक सुकदेव के मन की दुविधा को जान गये और उन्होंने सुकदेव के पास एक दूत भेजा, कि सुकदेव को सत्कार के साथ दरबार में लाया जाये ! इस तरह गुरु और शिष्य की प्रथम भेंट हुई। महाराज ने अपने मंत्रियों और सहचरों को आदेश दिया कि वे दरबार से बाहर चले जायें। जब सारे मंत्री दासियाँ दरबार से चली गई तब दोनों परमात्मा के विषय में चर्चा करने लगे । कुछ घण्टें बीत गए, अब सुकदेव भुख और प्यास से व्याकुल होने लगे किन्तु महाराज जनक परमात्मा की व्याख्या करने में लीन थे। सुकदेव ने बाधा डालना उचित नही समझा।
अभी कुछ घण्टें व्यतीत हुए थे और दो दूत भागे-भागे आये और कहने लगे “महाराज, राज्य में आग लग गई है और आग बेकाबू हो कर महल की ओर बढ़ रही है, राज्य को आग से बचाने के लिए सेना को आदेश दीजिये महाराज !” राजा जनक ने उत्तर दिया, “मैं अभी अपने शिष्य सुकदेव के साथ परमेश्वर के चिंन्तन मे व्यस्त हूँ । अभी मेरे पास किसी अन्य विषय के लिये समय नहीं है।” यह सुन सुकदेव बहुत प्रभावित हुए !
कुछ घंटों के उपरान्त वे दूत पुनः भागे-भागे राजा जनक के पास आये, और राजा जनक से विनती करने लगे -“महाराज, कृपया यहाँ से भागिए, आग महल में प्रवेश कर चुकी है और तेजी से दरबार की ओर बढ रही हैं।” राजा जनक ने शांत मन से उत्तर दिया “तुम महल में मौजूद सभी लोगों को लेकर महल से दूर सुरक्षित जगह पर चले जाओ और मेरी चिंता मत करो, मैं अपने शिष्य के साथ आध्यात्मिक विषय पर गहन चिंतन कर रहा हूँ।”
सुकदेव राजा जनक के आचरण को देख अचम्भे में पड गये किन्तु वो प्रभावित नहीं होना चाहते थे। थोडी देर बाद आग में झुलसे हुए दो दूत आये और राजा जनक के सामने चिल्लाने लगे, “महाराज, आग आपके सिंहासन की ओर बढ रही है। भागिये ! नही तो आप दोनों भी जल जायेंगे। राजा ने उत्तर दिया, “आप दोनों स्वयं को बचाइए। मुझे परमात्मा की बाहों मे सुरक्षा, शान्ति और आनंन्द मिल रहा है। मुझे इस विनाशकारी अग्नि से डर नही लगता।”
दोनों दूत वहॉ से भाग गये। अबतक आग सुकदेव के शास्त्रों के गठरी तक पहुँच गई थी । किन्तु राजा जनक अचल-अडोल स्थिति में बैठे रहे। सुकदेव शास्त्रों को जलता देख चौकन्नें हो गये और खडे होकर आग बुझाने मे लग गये, ताकि उनके अनमोल शास्त्र को बचा सके। राजा जनक ने हंसकर हल्का-सा हाथ मारा और आग बुझ गई। अब तो सुकदेव के आश्चर्य का ठिकाना नहीं था, सुकदेव अपने स्थान पर पुनः बैठ गये। तब राजा जनक ने शान्त भाव से कहा “सुकदेव, तुमने मुझे सांसारिक भोगों से मोहित-पतित राजा समझा, परन्तु तुम स्वयं को देखो, सबकी रक्षा करने वाले भगवान के बारे में चिंतन को छोड अपनी पुस्तकों की रक्षा करने लग पडे। मैने राजमहल के जल जाने की ओर भी ध्यान नही दिया। भगवान का हर कार्य चमत्कार से भरा रहता है, मैं आपको यही दिखाना चाहता था। वैसे तुमने घर-परिवार को छोड वैराग्य धारण किया किन्तु फिर भी तुम परमात्मा से ज्यादा इन किताबों के मोह से जुडे़ हुए हो”। महाराज की बात सुन सुकदेव ने लज्जित हो उनसे क्षमा प्रार्थना की !
इस कहानी का आध्यात्मिक सार केवल इतना है कि ‘वैराग्य’ एक मानसिक स्थिति है, एक राजा या गृहस्थ व्यक्ति भी मन से बैरागी हो सकता है और साधु वेश धारी भी पूरी तरह सांसारिक हो सकता है।
- केशव “श्री” इदमस्तु