पता नहीं कब कैसे, किसने बांधे ये बंधन…??

किसी ने तो बांधे होंगे, तुम्हारे और मेंरे बीच

संवेदनाओं में लिपटे ‘अदृश्य बंधन‘।।

हाँ शायद वे सपने ही थे…..

अपने अपने मन की गीली मिटटी में उकेरे

न जाने कब ….

एक दुसरे की भावनाओं के हाथ थाम, वे मिला गए हमको…

बाँध गये चुपचाप एक दुसरे से….

तुम्हे तो याद होगा न उन सपनो का सफरनामा..??

मैं भी कहाँ भूला पाया हूँ जान..

सुना है, अब कान कमजोर हो गये है मेरे

अक्सर तबियत भी रहती है बिगड़ी बिगड़ी सी

सांसों का तरन्नुम भी बिगड़ जाता है

उन्मान्दी खांसी की बेवजह दखलंदाजी से…

मत रुकना चलती रहना बस मेरे रास्तो पे..

बैठ जाना गर गुठनों का दर्द बढ़ जाये कहीं

मत भर लाना आँखों में अकेलेपन की नमी क्योंकि चल रहा हूँ मैं भी …

बस कुछ काम अभी अधुरें है ….

सुनो..??

बगीचे की मुंडेर के उसी कोने में, गुलाब का वो पौधा

अभी सूखा नहीं है….

उम्मीदों की कोपलें अब भी फूटती है उसमे

कुछ कलियाँ भी यदा कदा चटकती है

उनकी सुर्खियत याद दिलाती है बरबस मुझे तुम्हारी

भूलूँ भी तो कैसे ? बंधा हूँ मजबूत बन्धनों में..

न जाने किसने बांधे होंगे ये बंधन..??

मीठे सपनो और बिना किसी ”गाँठ” के

केशव “श्री” इदमस्तु

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