Spiritual Soul क्या कहते है शास्त्र, वेद और पुराण

जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मुरत देखी तिन तैसी

चलिए, दुनिया से थोड़ा अलग सोचते है – एपिसोड – 1

कोई भी घटना हमें जैसी दिखाई देती है, जरुरी नहीं की वो ठीक वैसी ही हो ! हमें उस घटना का वही स्वरुप दिखाई देगा जिस दृष्टिकोण से हम उस घटना को देख रहे है ! हो सकता है उस घटना को कोई दूसरा व्यक्ति किसी अन्य दृष्टिकोण से देख रहा हो और उसे वो घटना वैसी नहीं दिखाई दे जैसी उसे आप देख रहे थे !  हो सकता है कोई तीसरा व्यक्ति उसी घटना को किसी तीसरे एंगल से देख रहा हो और उसे कुछ ऐसा दिखाई दे जो आप दोनों को नहीं दिखाई दिया था ? तात्पर्य यह है की घटना चाहे कोई भी हो, आपको वो घटना ठीक वैसी समझ आएगी जिस दृष्टिकोण से आप उस घटना को देख रहे थे, लेकिन उस घटना का सम्पूर्ण सत्य सिर्फ उतना नहीं होता, जितना आप जानते है 

अक्सर हम सिर्फ उन्ही लोगो को फॉलो करते है जिनके विचार हमसे मैच करते हो, फॉलो करते करते हम भी ठीक वैसा ही सोचने समझने लगते है जिस तरह वो लोग सोचते है ! चूँकि, हम उनके अलावा किसी और को फॉलो नहीं करते जिसकी वजह से हमें घटना को दूसरे एंगल से देखने या समझने का मौका ही नहीं मिलता, और हमें लगता है वो घटना ठीक वैसी ही है जैसी हमें अबतक समझ आयी है

आज तक दुनिया के बड़े बड़े महापंडितों ने इस दोहे को एक ही भावना से देखा, पढ़ा, समझा और हमें समझाया ! अब उन महापंडितों और महापुरषों की भावना जैसी थी उन्हें इस दोहे का अर्थ वैसा ही समझ आया लेकिन वो इस दोहे को भावना से देख या समझ रहे थे, दृष्टिकोण से नहीं ! किसी भी लिखित वाक्य को समझने के लिए पहले उसे पढ़ा जाता है, और पढ़ने का काम भावना से नहीं दृष्टिकोण से होता है, पहले दृष्टिकोण आता है फिर जिस दृष्टिकोण से हम देख रहे है उस एंगल से हमें वो घटना जैसी दिखाई दे रही हो उस घटना के लिए हमारी भावना वैसी ही जागृत हो जाती है !

चूँकि हम जिस तरह के लोगों को अबतक फॉलो करते आ रहे है, उन लोगो ने इस दोहे का जो अर्थ निकाला, ठीक वैसा ही अर्थ हमने भी निकाल लिया ! ना उन्होंने इस दोहे को किसी दूसरे एंगल से देखा समझा ,ना ही हमने किसी और एंगल से सोचने समझने की कोशिश की !इस दोहे के दूसरे पहलु पर हमारा कभी ध्यान ही नहीं गया, अगर इस दोहे को पढ़ने और समझने का हम थोड़ा सा भी दृष्टिकोण बदल दे तो इस दोहे का अर्थ ही बदल जायेगा

आप सोच रहे होंगे की, क्या किसी रचना या घटना को पढ़ने या देखने का दृष्टिकोण अलग अलग हो सकता है?

जी हाँ, किसी भी लिखित रचना को पढ़ने का दृष्टिकोण अलग अलग हो सकता है, इसे समझाने के लिए हम 3 बहुत छोटी छोटी कहानियों पर ध्यान देते है, वैसे आप ने इन्हे पहले भी बहुत बार सुना होगा

पहली कहानी – “काग दही पर जान गँवायो”

एक पोलिस थाने के पास एक छोटी सी होटल थी, उस पोलिस थाने से जिस किसी व्यक्ति को कोर्ट ले जाया जाता, पोलिस वाले उस व्यक्ति को पहले उस होटल पर ले जाते, वहां उसके पैसों से चाय पीते और फिर उसे लेकर कोर्ट निकल जाते

एक दिन पोलिस ने किसी विवाद में एक कवि को गिरफ्तार किया, कागजी कार्यवाही करने के बाद 2 कॉन्स्टेबल कवि को लेकर होटल पर पहुँचे, वहाँ वो लोग चाय पी रहे थे, इतने में एक कौआ कहीं से आया और होटल के काउंटर पर रखी दही की परात में चोंच मारकर उड़ गया ।

हलवाई को बड़ा गुस्सा आया उसने एक पत्थर उठाया और कौए को दे मारा। कौए की किस्मत ख़राब थी, पत्थर सीधे जा कर कौए के सिर पर लगा और कौआ वहीँ गिरकर मर गया।

इस घटना को देख कवि महोदय के अंदर का कवि जाग गया । उन्होने एक कोयले के टुकड़े से होटल की दीवार पर एक पंक्ति लिख दी।

“काग दही पर जान गँवायो” – अर्थात “कौआ जिसने दही पर जान गंवा दी”

थोड़ी देर में कुछ कॉन्स्टेबल एक अकाउंटेंट जो की कागजों में हेराफेरी की वजह से गिरफ्तार हुए थे, उसे लेकर वहाँ चाय पीने पहुँचे। कवि की लिखी पंक्तियों पर जब अकाउंटेंट की नजर पड़ी तो उसके मुँह से निकला, “कितनी सही बात लिखी है!”

“कागद ही पर जान गँवायो” अर्थात “कागज़ पर जान गंवा दी”

थोड़ी देर बाद एक मजनू टाइप लड़के को पोलिस वाले पीटते हुए वहा लेकर आये । वो चाय पी रहे थे और अचानक मजनू टाइप लड़का हसने लगा, पोलिस वाले ने पूछा दिमाग ख़राब है? हंस क्यों रहा है?

लड़का बोलै “कितनी सही बात लिखी है, “”का गदही पर जान गँवायो” अर्थात “क्या गधी पर अपनी जान गँवा दी”

कवि की लिखी बात को देखने और समझने का सभी का दृष्टिकोण अलग अलग था, इसलिए तीनो व्यक्तियों को उस एक ही वाक्य के 3 अलग अलग अर्थ समझ आये

दूसरी कहानी – रुको मत मारो

कुछ गुंडे एक आदमी को पिट रहे थे, अचानक एक लड़का वहां दौड़ा दौड़ा आया, उसके हाथ में उन गुंडों के बॉस की चिट्टी थी,

एक गुंडे ने चिट्ठी पढ़ी और बोला “रुको मत, मारो साले को”

और सबने मिलकर उस आदमी की फिर से जमकर पिटाई करना शुरू कर दी, उतने में उस चिट्टी को दूसरे गुंडे ने पढ़ा और वो चिल्लाया “अरे रुक जाओ छोड़ दो इसे”

गुंडों ने झल्लाते हुए पूछा “अब तुझे क्या हुआ है बे ?”

उस गुंडे ने कहा “बॉस की चिट्ठी में लिखा है रुको, मत मारो”

सब ने उस आदमी को छोड़ बारी बारी से उस चिट्ठी को पढ़ा, चिट्ठी पढ़ने के बाद उन गुंडों के 2 गुट बन गए, कुछ गुंडे उस चिट्ठी को “रुको, मत मारो” पढ़ रहे थे और कुछ “रुको मत, मारो” पढ़ रहे थे ! चूँकि बॉस ने चिट्ठी लिखते वक़्त “रुको मत मारो” के बीच कहीं पर भी कोमा का इस्तेमाल नहीं किया था, अब जिसका दृष्टिकोण जैसा था वो अपना कोमा वहां लगा कर अपने हिसाब से उस चिट्ठी का अर्थ निकाल रहा था

तीसरी कहानी – रामेश्वर – राम है ईश्वर जिनके या राम के ईश्वर

2 दोस्त दर्शन के लिए रामेश्वरम गए !  होटल से नहा कर वो दोनों रामेश्वरम के मंदिर में गए, दर्शन किये, और मंदिर से बाहर आकर एक चौपाल पर बैठ कर प्रशाद ग्रहण कर रहे थे, अचानक दोनों में किसी बात पर लड़ाई शुरू हो गयी, मार पिट को देख कर वहाँ भीड़ लग गयी और थोड़ी देर में वहाँ पोलिस भी आ गयी

पोलिस ने बीच-बचाव करके दोनों से पूछा “जब दोनों दोस्त हो और साथ में आये हो दर्शन करने तो झगड़ा क्यों कर रहे हो? 

तब एक ने कहा “कुछ नहीं साहब, ये राम का मंदिर है और ये बार बार कह रहा है की ये शिव का मंदिर है”

पोलिसवाले ने कहा “ये रामेश्वरम का मंदिर है” ना राम का ना शिव का

उन लोगो में बहस का मुद्दा इसलिए था क्योंकि एक दोस्त जो वैष्णव सम्प्रदाय को मानता था जिसके लिए विष्णु श्रेष्ठ है, उसके अनुसार “रामेश्वरम” शब्द की संधि-विच्छेद करने पर जो अर्थ निकल कर आता है वो है “राम है ईश्वर जिसके” उसके अनुसार ये मंदिर राम ने बनाया और राम का ही है

चूँकि दूसरा दोस्त शैव सम्प्रदाय को मानता था, जिसके लिए शिव श्रेष्ठ है, उसके मतानुसार “रामेश्वरम” शब्द की संधि-विच्छेद करने पर अर्थ निकल कर आता है “राम के ईश्वर” यानी शिव, जिसके हिसाब से ये मंदिर राम ने बनाया जरूर है लेकिन मंदिर है शिव का

और पोलिसवाला चूँकि किसी सम्प्रदाय विशेष से नहीं था इसलिए नूट्रल था और उसके हिसाब से ये मंदिर रामेश्वरम का है

तीनो के सोचने समझने का दृष्टिकोण एक दूसरे से अलग है इसलिए एक ही बात के उनके 3 अलग अलग मतलब निकल कर आ रहे है  

इस वीडियो को जितने लोग देख रहे है उन लोगो में जो वैष्णव है उन्हें लगेगा की वैष्णव दोस्त सही कह रहा है, अगर शैव इस वीडियो को देख रहा है तो उसे लगेगा शैव दोस्त सही है, लेकिन जो लोग नूट्रल है वो यही कहेंगे की सम्प्रदाय से क्या फर्क पड़ता है मंदिर तो रामेश्वरम का है

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अब हम फिर से आते है हमारे मूल प्रश्न पर की तुलसीदास जी क्या कह रहे है

“जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन तैसी”

इस दोहे को अधिकतर लोग भावना से जोड़ते है, मै इस दोहे को दृष्टिकोण से जोड़कर देखना चाहता हूँ, यहाँ देखने के 2 दृष्टिकोण हो सकते है

देख कौन रहा है?

हम राम को या राम हमें?

अब फिर से पढ़ते है “जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन तैसी”

अबतक जिन लोगो को हमने सुना समझा, उनके अनुसार तुलसीदास जी ने रामचरितमानस के एक ही दोहे में प्रभु श्रीराम के सम्पूर्ण चरित्र का वर्णन कर दिया ! उन्होंने भगवान् श्रीराम के चरित्र के बारे में डिटेल में लिखने कि बजाये सबकुछ आप पर ही छोड़ दिया ! उन्होंने तो दो-टूक कह दिया कि “प्रभु राम में तो अनगिनत विशेषताएं है, अब मैं किस किस का बखान करू, आप स्वयं ही डिसाइड कर लो, आपको उनके किस चरित्र का दर्शन करना है ? आप जिस भावना से उनका स्मरण करेंगे, प्रभु राम आपको उसी स्वरुप में दर्शन दे देंगे”

अगर आप अपने पालक की भावना से उनका स्मरण कर रहे है, तो वो आपको शेषनाग पर लेटे जगतपालक भगवान् श्रीहरी के रूप में दर्शन देंगे, अगर आप उन्हें अपनी रक्षा के लिए स्मरण कर रहे है तो वो आपको संहारक भगवान् श्री नरसिंम्ह या भगवान् श्री वराह के रूप में दर्शन देंगे लेकिन अगर आप उन्हें प्रेम भाव से स्मरण कर रहे है तो वो आपको भगवान् श्रीकृष्ण के रूप में दर्शन देंगे

तो ये है पहला दृष्टिकोण की “हम प्रभु को देख रहे है”

हम जिस जिस भावना से प्रभु को देख रहे है, जैसी भावना होगी, हमें प्रभु वैसे ही दिखाई देंगे – अच्छे को अच्छा, बुरे को बुरा, शांत को शांत मुद्रा में और उग्र को रुद्रावतार में

दूसरा दृष्टिकोण है की “जिसकी भावना जैसी है – प्रभु उसे वैसे ही देख रहे है”

हम अक्सर मंदिर जाते है तो रोजाना से अलग ट्रेडिशनल वेअरिंग्स में जाते है, माथे पर तिलक जरूर लगाएंगे, हमारे गेटउप से हम दुनिया के सबसे अच्छे इंसान दिखाई पड़ेंगे, लेकिन प्रभु के लिए आपकी वेशभूषा, आपका श्रृंगार मायने नहीं रखता, आपके मन में जो भी भावना है आपके जैसे भी संस्कार है, आप सिर्फ अपना भेष बदल कर प्रभु से अपने उन संस्कारों को छुपा नहीं सकते, आपकी भावना और संस्कार जैसे है प्रभु आपको वैसा ही देख रहे है

सोचने के दोनों दृष्टिकोणों में बहुत बड़ा फर्क है, बात एक ही है लेकिन दृष्टिकोण बदलते ही उसके मायने बदल जाते है

तो अब आप जब भी सुने “जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन तैसी” तो आपके पास चॉइस है की आप इसका क्या मतलब निकालते है? “हम भगवान् राम के गुण-अवगुण देख रहे है या भगवान् राम हमारे गुण-अवगुण देख रहे है?”

अगर हम राम को देख रहे है इसका तात्पर्य है की हम राम के गुण-अवगुण देख रहे है, लेकिन शायद हमारी इतनी हैसियत नहीं है की हम प्रभु श्री राम के गुण-अवगुण देखे, जबकि अगर हम ये सोचेंगे की “प्रभु श्री राम हमें देख रहे है” तो चूँकि राम द्वारा हमारे गुणों को परखा जा रहा है तो हमारे अंदर सतोगुण की वृद्धि होगी और हमारे अंदर से रजोगुण और तमोगुण दूर होंगे

एक का फोकस है की आप ईश्वर के गुणों की विशेषता देखो

मेरा फोकस है की ईश्वर हमारे गुणों को परख रहा है और उससे कुछ भी छुपा नहीं है, उसे हमारी सारी भावनाएं दिखाई दे रही है

ये फर्क छोटा सा है लेकिन इसके मायने बहुत बड़े है की :

कुछ लोग बुरा काम नहीं करते क्योंकि वो डरते है की “भगवान् उन्हें देख रहे है”

लेकिन कुछ लोग हमेशा अच्छे काम करते है क्योंकि वो खुश है की “भगवान उन्हें देख रहे है”

श्री श्री इदमस्तु” : आध्यात्मिक गुरु

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